स्थानीय निकाय चुनावों का कोलाहल

राजीव लोचन साह
उत्तराखंड इस वक्त स्थानीय निकाय चुनावों के कोलाहल में घिरा है। मतदाताओं में उत्साह है या नहीं, यह तो मतदान के बाद ही पता चल पायेगा। मगर नगरपालिकाओं और महापालिकाओं के मेयर, अध्यक्ष या पार्षदों का चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों में बेतहाशा उत्साह है। इनमें बहुत कम लोगों को ठीक से पता है कि स्थानीय निकायों के अधिकार कितने होते हैं। या कि स्थानीय निकायों में और विधायिकाओं में अन्तर क्या है ? इसलिये वे अपने मतदाताओं को आसमान से तारे तोड़ कर लाने के सपने दिखा रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि जिस मीडिया की जिम्मेदारी यह प्रशिक्षण करने की थी, वह इस चुनाव को पेड न्यूज के रूप में पैकेज खरीदने के एक शानदार अवसर के रूप में देख रहा है कि किस तरह गरजमंद उम्मीदवारों से ज्यादा से ज्यादा पैसे लूट-खसोट सके। इस अफरातफरी में यह मुद्दा लापता हो गया है कि हमारे देश में 73वें और 74वें संशोधन कानूनों के रूप में दो ऐसे क्रांतिकारी कानून हैं, जो पूरे देश की किस्मत बदल देने की क्षमता रखते हैं। 73वें कानून में ग्राम पंचायतों को ऐसे अधिकार दिये गये हैं और 74वें में नगर निकायों को, कि वे अपनी जरूरतों के हिसाब से अपनी योजनायें बना सकें, अपने बजट तैयार कर सकें, अपने वित्तीय संसाधन टैक्स लगा कर स्वयं जुटा सकें और वित्त आयोग के माध्यम से राज्य सरकार से धनराशि ले सकें। मगर इन कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है और मूलतः सिर्फ कानून बनाने का अधिकार रखने वाले विधायक-सांसदों को ठेकेदार बना देने वाले इस लोकतंत्र में अब राजनेता, नौकरशाह और माफिया की तिकड़ी ऐसा क्यों चाहने लगेगी कि आम जनता अपने पैरों पर खड़ी हो जाये ? अपनी किस्मत खुद लिखने लगे ? इसलिये 1992 से लागू हो गये ये कानून धूल खा रहे हैं, गाँवों और शहरों में रहने वाली जनता अपनी किस्मत पर रो रही है तथा देश के लुटेरे मौज मार रहे हैं। निकाय चुनाव का कोलाहल है, मगर यह मुद्दा नदारद है।